भारत का प्राचीनतम तीर्थ होने का गौरव हरिद्वार को है। देश भर के अलग-अलग राज्यों के श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते हैं और वंशावलियों के माध्यम से कई पीढ़ियों के अपने पूर्वजों के ब्यौरे का श्रवण करते हैं। पूर्वजों के स्मरण से उनके परिजनों को आत्मिक सुख अनुभव होता है। यहां की वंशावलियों में देश की कई रियासतों के राजाओं के आने के उल्लेख दर्ज हैं शताब्दियों से हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित देशभर से तीर्थयात्रा के लिए यहां पहुंचने वाले तीर्थ यात्रियों की वंशावली के लेखन का कार्य करते हैं। भोज पत्रों और ताम्र पत्रों पर वंश लेखन के बाद अब कागज की बहियों पर वंश लेखन का कार्य शुरू किया गया। तीर्थ पुरोहितों के पास सैकड़ों वर्ष पुरानी बहियां आज भी सुरक्षित हैं। तीर्थ पुरोहितों की बहियों में देश भर के राजाओं, महाराजाओं, साधु, संतों, राजनेताओं एवं आम लोगों के परिवारों के वंश लेखन बहियों में मौजूद हैं। हरिद्वार में 30 हजार से अधिक की संख्या में वंशावली की बहियां सुरक्षित और संरक्षित हैं। इन बहियों में लेखन करने के लिए अलग स्याही तैयार करके तीर्थ पुरोहित वही लेखन करते हैं, जो काफी वर्षों तक सुरक्षित रहती है। इन वंशावलियों में जातियों, गोत्रों, उपगोत्रों का भी जिक्र रहता है। सबसे अहम बात इन बहियों में देखने को मिलती हैं कि तीर्थ पुरोहितों ने लेखन को भेदभाव से दूर रखा है। जहां राजाओं महाराजाओं की वंशावलियां जिस क्रम में अंकित हैं, उसी क्रम में तीर्थ नगरी में पहुंचने वाले अन्य श्रद्धालुओं की हैं। विभिन्न राजवंशों की मुद्रांए, हस्त लेखन, दान पत्र, अंगूठे और पंजों के निशान बहियों में मौजूद हैं।