सिद्धार्थनगर जनपद के हल्लौर गांव की बड़ी ही विचित्र परंपरा है। आप सुनकर हैरान हो जाओगे यहां तो लोग जीते जी अपने व परिवार के लिए कफन खरीद कर रख लेते हैं। साथ ही दोस्तों, रिश्तेदारों को भी कफन को तोहफे में देते हैं और तो और सभी इसे बड़े खुशी-खुशी कबूल भी करते हैं। शिया समुदाय में सौ फीसदी न सही, पर अधिकांश परिवार ऐसे जरूर मिल जाएंगे, जिन्होंने जिंदा रहते ही अपने लिए कफन खरीद कर रख लिया है। सच में क्या अनोखी और विचित्र परम्परा है।
दरअसल यह कफन होता तो आम ही की तरह, पर इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद मुस्तफा के नवासे हजरत इमाम हुसैन की पाक सरजमीन कर्बला से आने के कारण से खास हो जाता है। हल्लौर निवासी डॉ. तनवीर रिजवी, गुलाम कम्बर, कैसर अहमद, अनवार मेंहदी, वजीहुल हसन, ताकीब रिजवी, नफीस हैदर, शादाब हुसैन, जमाल हैदर, फजल अब्बास, हबीबुल हसन, शफीक रजा, आरजू अहमद जैसे न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जिन्होंने कफन मंगाकर रख लिया है।
इनका मानना है कि उनका कफन ऐसी मुकद्दस सरजीमन से आया, जहां इमाम हुसैन ने इस्लाम की खातिर अपनी जान की कुर्बानी दी थी। वह कहते हैं कि हम लोग भी हर वक्त कफन साथ रख कर तैयार रहते हैं। जब भी इस्लाम को जरूरत होगी, वह पीछे नहीं हटेंगे। ऐसा नहीं है कि बुजुर्ग व्यक्ति ही अपने लिए कफन खरीद कर लाते हैं। बल्कि युवा भी इसे खरीद कर रखने में पीछे नहीं हैं। कई युवा ऐसे हैं, जिन्होंने भी अपने लिए कफन मंगा कर रख लिया है।
अमूमन लोग रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल किये जाने वाले सामान का ही तोहफा देते हैं, परन्तु शिया समुदाय के लोग कर्बला से लाए गए कफन को अपने करीबियों व रिश्तेदारों को तोहफे में देते हैं, जिसे लोग भी खुशी-खुशी कबूल कर लेते हैं। इसमें कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो फरमाइश कर कफन मंगाते हैं।
भारत में बिकने वाले कफन बिल्कुल कोरे होते हैं। जबकि कर्बला से लाए गए कफन पर दुआएं लिखी होती हैं। दुआओं के लिखे होने से लोगों का मानना है कि इससे कब्र के अजाब से निजात तो मिलती ही है, वहीं जन्नत भी नसीब होती है।
वहीं महिलाओं के लिए 16 और पुरुषों के लिए 15 मीटर का कफन लगता है। जियारत कर लौटने वाले लोग कर्बला से लाए गए कफन को उन लोगों को प्रसाद के रूप दे देते हैं, जिनके पास कर्बला का कफन नहीं होता है या फिर जो कभी कर्बला नहीं जा पाते हैं।